प्रधानमंत्री का यह दावा कि “किसानों का कल्याण उनकी सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है” — झूठ है और जनता को गुमराह करने की कोशिश है।
पिछले 11 वर्षों से किसानो की लिए एमएसपी @ सी 2+50% और कर्ज माफी से इनकार किया गया
एनडीए सरकार ने भारतीय किसानों की प्रतिस्पर्धात्मकता को नष्ट कर दिया
किसानों की आय दोगुनी करने की बजाय, लागत और संकट दोगुना हो गयाअशोक ढ़वले, अध्यक्ष
विजू कृष्णन, महासचिव
अखिल भारतीय किसान सभा
किसान सभा मांग करती है कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को रद्द किया जाए और जन-केंद्रित विकास की दिशा अपनाई जाए
किसान सभा का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह दावा कि “किसानों का कल्याण उनकी सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है” — सच्चाई से कोसों दूर है। अमेरिका द्वारा टैरिफ को 50% तक बढ़ाना और भारत पर द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के लिए दबाव डालने की पृष्ठभूमि में दिया गया यह बयान किसानों को लुभाने की एक और कोशिश है। भारतीय किसान अब ऐसे जुमलों और झूठे वादों के आदी हो चुके हैं, जो पिछले 11 वर्षों में बार-बार सुनने को मिले हैं।
असल में, एनडीए सरकार ने अपने 11 साल के शासन में किसानों की प्रतिस्पर्धात्मकता को पूरी तरह नष्ट कर दिया है। प्रधानमंत्री ने 2014 के भाजपा चुनावी घोषणा-पत्र में किया गया यह वादा तक पूरा नहीं किया कि सभी फसलों के लिए सी2+50% के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी ) पर गारंटीकृत खरीद की जाएगी — जो राष्ट्रीय किसान आयोग के अध्यक्ष एम.एस. स्वामीनाथन द्वारा अनुशंसित था। लाभकारी मूल्य न मिलने और लगातार बढ़ती इनपुट लागत ने भारतीय कृषि को गंभीर संकट में डाल दिया है। किसान भारी कर्ज में डूबे हैं और ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन तेजी से बढ़ रहा है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, हर दिन भारत में 31 किसान आत्महत्या करते हैं। इसके बावजूद प्रधानमंत्री ने अब तक कोई कर्ज राहत योजना लागू नहीं की है। इसके विपरीत, पिछले 11 वर्षों में 16.11 लाख करोड़ रुपये के कॉरपोरेट ऋण माफ किए गए हैं।
भारत का लगभग 48% कार्यबल कृषि पर निर्भर है और लगभग 60% परिवार ग्रामीण भारत में रहते हैं। नवउदारवादी नीतियों के तहत किसान समुदाय की दुर्दशा सरकारी आंकड़ों से स्पष्ट है। ग्रामीण भारत में 2200 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की खपत को गरीबी की पहचान मानते हुए, 1993-94 में 58% लोग इस स्तर से नीचे थे — यह वह समय था जब 1991 में नवउदारवाद की शुरुआत हुई थी। 2011-12 में यह आंकड़ा बढ़कर 68% हो गया। 2017-18 तक हालत इतनी खराब हो गई कि सरकार ने उस वर्ष का उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण सार्वजनिक करने से ही मना कर दिया और आंकड़ों को बदल डाला। फिर भी जो थोड़ी जानकारी सामने आई, उससे यह स्पष्ट हुआ कि 80.5% ग्रामीण लोग इस न्यूनतम कैलोरी स्तर से नीचे थे।
प्रधानमंत्री मोदी के इस दावे के विपरीत कि उनकी सरकार किसानों, मछुआरों और पशुपालकों के हितों से कभी समझौता नहीं करेगी — पिछले 11 वर्षों की नीतियां पूरी तरह से कृषि वर्ग को गरीब और असहाय बनाने वाली रही हैं। कृषि भूमि, जंगल, खनिज और जल जैसे सभी संसाधनों को देशी-विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों के हवाले किया जा रहा है।
कॉरपोरेट हितैषी तीन कृषि कानून — जिनका उद्देश्य था एपीएमसी मंडियों को ख़त्म करना, एमएसपी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खत्म करना है — मोदी सरकार द्वारा थोपा गया। इन कानूनों को साल भर चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन के जरिए रोका गया, जिसमें 736 किसानों ने अपनी जान कुर्बान की। अब राष्ट्रीय कृषि विपणन नीति-2024 (एनपीएफएएम) और राष्ट्रीय सहकारिता नीति-2025 (एनपीसी) जैसे कदम संविधान में राज्यों के अधिकारों और संघीय ढांचे पर सीधा हमला हैं, जो भारतीय अर्थव्यवस्था को बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट्स के हवाले करने की साजिश है।
चार श्रम संहिताएं, जो कॉरपोरेट कंपनियों के लिए सस्ता श्रम सुनिश्चित करती हैं, ने न्यूनतम मजदूरी का अधिकार तक छीन लिया और स्थायी रोजगार की अवधारणा को खत्म कर दिया है। आज बेरोजगारी 45 वर्षों के चरम पर है और युवाओं का भविष्य अंधकारमय होता जा रहा है। यहां तक कि आरएसएस प्रमुख को भी हाल ही में यह कहना पड़ा कि शिक्षा और स्वास्थ्य आम लोगों की पहुंच से बाहर हो चुके हैं — जो भाजप-आरएसएस की कथनी और करनी के अंतर को उजागर करता है।
पिछले तीन दशकों में व्यापार उदारीकरण के पैरोकारों ने यह झूठा वादा किया कि निर्यात अवसर भारतीय किसानों को लाभ देंगे। लेकिन इसके विपरीत, कृषि उत्पादों के आयात के लिए भारतीय बाजार खोले गए — जिससे तेल, दालें, फल, रबर और कपास जैसी वस्तुओं के लिए आयात निर्भरता बढ़ गई। एसियान मुक्त व्यापार समझौते ने प्राकृतिक रबर, चाय और कॉफी जैसे नकदी फसल क्षेत्रों को तबाह कर दिया। एफटीए के जरिए भारतीय अर्थव्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के उतार-चढ़ाव और सट्टेबाजी के हवाले किया जा रहा है, जिससे भारतीय किसान और मजदूर वर्ग गंभीर संकट का सामना कर रहा है।
भारत को बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली को मजबूत किये जाने की जरुरत थी और अन्य विकासशील देशों को इस दिशा में साथ लाना चाहिए था। लेकिन मोदी सरकार ने विकसित देशों के दबाव में आकर द्विपक्षीय व्यापार समझौते करने शुरू कर दिए और भारत की स्थिति अंतरराष्ट्रीय मंच पर कमज़ोर हो गई है।
किसान सभा, संयुक्त किसान मोर्चा और कई किसान संगठन लगातार यह मांग कर रहे हैं कि केंद्र सरकार एफटीए वार्ताओं का ब्योरा संसद में प्रस्तुत करे और बिना संसद की मंजूरी के कोई भी एफटीए न किया जाए।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसलिए मौजूदा निर्यात-आधारित विकास मॉडल के बजाय राज्य के नेतृत्व में कृषि आधारित विकास की दिशा अपनाई जानी चाहिए। किसानों को लाभकारी मूल्य और मजदूरों को न्यूनतम जीवन निर्वाह मजदूरी देकर देश की 140 करोड़ जनता की क्रय शक्ति को बढ़ाना ही वह वैकल्पिक रास्ता है, जिससे घरेलू औद्योगिक उपभोक्ता उत्पादों को प्रभावी ढंग से अवशोषित किया जा सकता है घरेलू बाजार को सशक्त किया जा सकता है और भारत वैश्विक बाज़ार में मुकाबला कर सकता है तथा आगे बढ़ सकता है। किसान सभा यह मांग करती है कि, भारतीय संसद बीते तीन दशकों की नवउदारवादी नीतियों की समीक्षा करे और एक जन-केंद्रित विकास मॉडल अपनाए।
यह समय की मांग है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने झुकने वाली तथा जनता-विरोधी मोदी सरकार को करारा जवाब दिया जाए। अखिल भारतीय किसान सभा देशभर की अपनी सभी इकाइयों से आह्वान करता है कि एसकेएम और भूमि अधिकार आन्दोलन द्वारा बुलाए गए राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन को जबरदस्त सफलता बनाएं, किसान-मजदूर एकता की संयुक्त ताकत से भारी भागीदारी सुनिश्चित करें।
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